मंगलवार, 14 मई 2013

कोई भी छोटा बड़ा नही है सभी समान हैं !!


एक गाँव में एक पण्डित जी अपनी पंडिताईन के साथ रहते थे ! पण्डित जी गाँव में पूजा और अन्य धार्मिक कार्य करवाते थे ! उन पण्डित जी के मन में जातिवाद और उंच नीच की भावना कूट-कूट कर भरी हुयी थी ! लेकिन पंडिताईन समझदार थी। समाज की विकृत रूढ़ियों को नही मानती थी।एक दिन पण्डित जी को प्यास लगी। संयोगवश् घर में पानी नही था। इसलिए पण्डिताइन पड़ोस से पानी ले आयी। 

( पानी पीकर पण्डित जी ने पूछा। )
पण्डित जी- कहाँ से लाई हो। बहुत ठण्डा पानी है। 
पंडिताईन जी- पड़ोस के कुम्हार के घर से।
पण्डित जी ने यह सुन कर लोटा फेंक दिया और उनके तेवर चढ़ गये। वे जोर-जोर से चीखने लगे।
पण्डित जी- अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। कुम्हार के घर का पानी पिला दिया।
( पंडिताईन भय से थर-थर काँपने लगी, उसने पण्डित जी से माफी माँग ली। )
पंडिताईन- अब ऐसी भूल नही होगी।

( शाम को पण्डित जी जब खाना खाने बैठे तो पंडिताईन ने उन्हें सूखी रोटियाँ परोस दी। )
पण्डित जी- सब्जी नहीं बनाई ?
पंडिताईन जी- बनाई तो थी , लेकिन फेंक दी  क्योंकि जिस हाँडी में सब्जी बनाई वो तो कुम्हार के घर की थी !
पण्डित जी- तू तो पगली है। कहीं हाँडी में भी छूत होती है?

( यह कह कर पण्डित जी ने दो-चार कौर खाये और बोले-)
पण्डित जी- पानी तो ले आ।
पंडिताईन जी- पानी तो नही है जी।
पण्डित जी- घड़े कहाँ गये?
पंडिताईन जी- वो तो मैंने फेंक दिये। कुम्हार के हाथों से बने थे ना।
(पण्डित जी ने फिर दो-चार कौर खाये और बोले-)
पण्डित जी- दूध ही ले आ। उसमें ये सूखी रोटी मसल कर खा लूँगा।
पंडिताईन जी- दूध भी फेंक दिया जी। गायको जिस नौकर ने दुहा था, वह भी कुम्हार ही था।
पण्डित जी- हद कर दी! तूने तो, यह भी नही जानती दूध में छूत नही लगती।
पंडिताईन जी- यह कैसी छूत है जी! जो पानी में तो लगती है, परन्तु दूध में नही लगती।
(पण्डित जी के मन में आया कि दीवार से सर फोड़ ले, गुर्रा कर बोले-)
पण्डित जी- तूने मुझे चौपट कर दिया। जा अब आँगन में खाट डाल दे। मुझे नींद आ रहीहै।
पंडिताईन जी- खाट! उसे तो मैंने तोड़ कर फेंक दिया। उसे नीची जात के आदमी ने बुना था ना।

रविवार, 3 मार्च 2013

कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।

एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को अपने पास बुलाया। जब सब शिष्य उनके पास आ गए तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए ?  शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा।

कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भी दाँत शेष नहीं बचा है । शायद कई वर्षों से आपका एक भी दाँत नहीं है।' साधु बोले-देखो, मेरी जीभ तो अभी भी बची हुई है।'

सबने उत्तर दिया-हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है। इस पर सबने कहा-पर यह हुआ कैसे ? मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए ? इसका क्या कारण है, कभी सोचा है ?

शिष्यों ने उत्तर दिया - हमें मालूम नहीं । महाराज आप ही बतलाइए।
उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके। दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

अंगुलिमाल और भगवान बुद्ध !!


प्राचीनकाल की बात है। मगध देश की जनता में आतंक छाया हुआ था। अँधेरा होते ही लोग घरों से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, कारण था अंगुलिमाल। अंगुलिमाल एक खूँखार डाकू था जो मगध देश के जंगल में रहता था। जो भी राहगीर उस जंगल से गुजरता था, वह उसे रास्ते में लूट लेता था और उसे मारकर उसकी एक उँगली काटकर माला के रूप में अपने गले में पहन लेता था। इसी कारण लोग उसे "अंगुलिमाल" कहते थे।

एक दिन उस गाँव में महात्मा बुद्ध आए। लोगों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। महात्मा बुद्ध ने देखा वहाँ के लोगों में कुछ डर-सा समाया हुआ है। महात्मा बुद्ध ने लोगों से इसका कारण जानना चाहा। लोगों ने बताया कि इस डर और आतंक का कारण डाकू अंगुलिमाल है। वह निरपराध राहगीरों की हत्या कर देता है। महात्मा बुद्ध ने मन में निश्चय किया कि उस डाकू से अवश्य मिलना चाहिए।

बुद्ध जंगल में जाने को तैयार हो गए तो गाँव वालों ने उन्हें बहुत रोका क्योंकि वे जानते थे कि अंगुलिमाल के सामने से बच पाना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। लेकिन बुद्ध अत्यंत शांत भाव से जंगल में चले जा रहे थे। तभी पीछे से एक कर्कश आवाज कानों में पड़ी- "ठहर जा, कहाँ जा रहा है?"

शनिवार, 14 जुलाई 2012

एक नया विचार


एक बार की बात है एक राजा था। उसका एक बड़ा-सा राज्य था। एक दिन उसे देश घूमने का विचार आया और उसने देश भ्रमण की योजना बनाई और घूमने निकल पड़ा। जब वह यात्रा से लौट कर अपने महल आया। उसने अपने मंत्रियों से पैरों में दर्द होने की शिकायत की। राजा का कहना था कि मार्ग में जो कंकड़ पत्थर थे वे मेरे पैरों में चुभ गए और इसके लिए कुछ इंतजाम करना चाहिए। कुछ देर विचार करने के बाद उसने अपने सैनिकों व मंत्रियों को आदेश दिया कि देश की संपूर्ण सड़कें चमड़े से ढंक दी जाएं। राजा का ऐसा आदेश सुनकर सब सकते में आ गए। लेकिन किसी ने भी मना करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह तो निश्चित ही था कि इस काम के लिए बहुत सारे रुपए की जरूरत थी। फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा।

परम्परायें


एक गाँव में एक पंडित जी रहते थे पंडित जी नियमित रूप से पूजा पाठ में निमग्न रहते थे. एक दिन पंडित जी ने कोई धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन किया. पूजा प्रारम्भ हुई. गाँव के बहुसंख्यक लोग भी पूजा में भाग लेने के लिए उपस्थित थे. पंडित जी नें एक बकरी का बच्चा पाल रखा था जानवरों के बच्चे भी नटखट होते हैं. बकरी का बच्चा भी भाग दौड़, उछल कूद करता और बार बार पूजास्थल में घुस कर पूजा में व्यवधान डालता था. पंडित जी बकरी के बच्चे की हरकतों से परेशान हो गए. फिर उन्हें एक उपाय सूझा पंडित जी नें बकरी के बच्चे को पूजा संपन्न होने तक एक लकड़ी की टोकरी से ढक दिया. इस प्रकार उन्होंने अपनी पूजा संपन्न की. गाँव वाले यह सब देख रहे थे. चूंकि पंडित जी बड़े विद्वान् माने जाते थे और गाँव में उनका बड़ा सम्मान था, इस कारण लोगों नें सोचा कि बकरी के बच्चे को टोकरी से ढंकने के पीछे ज़रूर कोई न कोई रहस्य है. शायद यह भी पूजा का ही एक अहम् हिस्सा है. किसी नें भी पंडित जी से वास्तविकता, इसका कारण जानने की ज़हमत नहीं उठाई. फिर क्या था गाँव के सभी लोग जब पूजा करते तो पंडित जी का अनुसरण करते हुए, एक बकरी के बच्चे को लकड़ी की टोकरी से ढक कर पूजा संपन्न करते . जिसके पास बकरी का बच्चा नहीं होता वह खरीद कर लाता. इस प्रकार गाँव में एक नई परंपरा बन गई. कई बार ऐसी परम्पराएं बन जाती हैं, जिनका हम बिना सोचे विचारे अनुसरण करने लगते हैं!!